अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे से चीन काफी भड़का हुआ है। 25 साल में पहली बार कोई इतना बड़ा अमेरिकी राजनेता ताइवान पहुंचा है। इसके खिलाफ बीजिंग ने सैन्य कार्रवाई तक की धमकी दे डाली। दरअसल, अमेरिका ताइवान के जरिये चीन की एकाधिकार की कोशिश रोकना चाहता है। बीजिंग सक्षम ताइवानी उद्योगों पर काबू पाने की फिराक में है। यहां जानिए, ताइवान दोनों के लिए क्यों है इतना अहम
क्यों है चीन से झगड़ा ताइवान का
चीन के दक्षिण पूर्वी समुद्र के बीचों बीच स्थित छोटे-से द्वीप का नाम है ताइवान। चीन से वहां की दूरी करीब 160 किमी है। इसकी आबादी 2.3 करोड़ है। दोनों में टकराव 1949 में हुए गृह युद्ध के दौर से चला आ रहा है। तब ताइवान चीन से अलग हो गया था, पर बीजिंग उसे अपना प्रांत मानते हुए कब्जा करना चाहता है। वहीं, ताइवान ने खुद को आजाद मुल्क घोषित कर रखा है।
समर्थन के लिए अमेरिका क्यों लालायित
वर्ष 1954-55 और 1958 में चीन ने ताइवान के नियंत्रण वाले कुछ द्वीपों पर बमबारी की तो अमेरिका ने बीच-बचाव किया। फिर 1995-96 में चीन ने ताइवान के आस-पास समुद्र में मिसाइल परीक्षण शुरू किए तो वियतनाम युद्ध के बाद से क्षेत्र में सबसे बड़ी अमेरिकी सेना तैनात हो गई। दरअसल, अमेरिका 1970 से ही वन चाइना नीति का समर्थन करता आया है। इसके तहत ताइवान चीनी क्षेत्र का हिस्सा है।
अमेरिका उसकी आजादी और लोकतंत्र का भी पैरोकार रहा है। साथ ही उसके साथ अनौपचारिक संबंध बनाते हुए सैन्य साजो-सामान भी मुहैया कराता आया है। ऐसा करके वह चीन के खिलाफ सत्ता संतुलन रखना चाहता है, जिसके चलते चीन धमकियां दे रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने साफ कहा है कि अगर चीन ने ताइवान पर हमला किया तो वह उसकी रक्षा करेंगे।
कोरोनाकाल में पता लगी अहमियत
ताइवानी अर्थव्यवस्था दुनियाभर के लिए बड़े मायने रखती है। वहां फोन, लैपटॉप, गेमिंग से लेकर बड़े-बड़े इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस बनते हैं। गाड़ियों व उपकरणों में लगने वाले सेमीकंडक्टरों का उत्पादन होता है, जिनका कोरोना काल में अभाव हुआ तो दुनियाभर में ऑटो सेक्टर की रफ्तार ठहर गई थी।
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